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रीवा की जनता का अपना अलग मिजाज राजा- रानी के साथ हार चुके युवराज

The people of Rewa have their own unique temperament

The people of Rewa have their own unique temperament.
The people of Rewa have their own unique temperament.

Rewa Today Desk : लोग कहते थे जननायक फिर भी नहीं भेजा संसद तक श्रीनिवास तिवारी को
जिनकी नहीं थी कोई चर्चा, नही थी जनता से पहचान, लेकिन संसद तक पहुंचे रीवा के नाम
रीवा लोकसभा क्षेत्र की जनता की मिजाज ही अलग रहते हैं। चुनाव के दौरान कब किसको अपनी हाथ की गदेली में रख कर उसका मान बढ़ा दे, कब किसको नीचे पहुंचा दे, यह परिणाम आने के बाद ही पता चलता है। पिछले लोकसभा चुनाव के परिणाम इसके प्रमाण हैं। फिलहाल राम लहर और मोदी लहर का जोर है फिर भी यह कह पाना गलत है कि रीवा लोकसभा क्षेत्र में परिणाम एक तरफा रहेगा। जनता का मूड खराब न हो जाए, बड़े-बड़े दिग्गज धराशाई हो जाते हैं।


लोकसभा क्षेत्र रीवा पहले रीवा राज के नाम से ज्यादा जाना जाता था। विंध्य क्षेत्र की राजधानी भी रीवा ही हुआ करती थी। पांच दशक पहले रीवा राज परिवार का अपना एक अलग वजूद था। उसे राजनीतिक नहीं कहा जा सकता लेकिन पार्टियों के बीच यह मानसिकता थी कि राज परिवार के सामने किसी की दाल नहीं गलेगी। लेकिन रीवा की जनता ऐसी है कि वह काफी सोच समझ कर ऐसे निर्णय कई बार सुना देती है जो केवल रीवा राजभर में नहीं पूरे देश में चर्चा का विषय हुआ करता था।


सबसे पहले हम राज परिवार की राजनीतिक दास्तान यहां पर सुन रहे हैं। वर्ष 1972 में जब कांग्रेस में विघटन का दौर शुरू हुआ था तब के आम चुनाव में पार्टी ने कांग्रेस की ओर से मार्तंड सिंह को चुनाव लड़ने का ऑफर दिया गया था। लेकिन कांग्रेस का यह ऑफर उन्होंने इसलिए ठुकरा दिया था कि वह किसी पार्टी के पिछलग्गू नहीं रहना चाहते। अंत में उसे समय की कांग्रेस सुप्रीमो इंदिरा गांधी ने उनकी बात मानी और मजबूरी में कांग्रेस ने अपना समर्थन दिया और मार्तंड सिंह स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ गए। उन्होंने बंपर वोटो से जीत भी हासिल की। लेकिन पूरे देश में जब जेपी आंदोलन चला और सारे विपक्षी दल कांग्रेस के खिलाफ एक हो गए और जनता पार्टी गठित हुई तो जनता पार्टी ने प्रखर वक्ता और उस समय में सर्वाधिक धरना प्रदर्शन आंदोलन करने वाले यमुना प्रसाद शास्त्री को टिकट दी थी। सामने फिर से निर्दलीय महाराजा मार्तंड सिंह ही रहे। 1977 के इस चुनाव में महाराजा मार्तंड सिंह पराजित हो गए। उस समय हार का अंतर 6693 वोटो का रहा। हार जीत तो एक सामान्य बात है लेकिन यमुना प्रसाद शास्त्री की यह जीत और महाराजा मार्तंड सिंह की यह हार पूरे देश के अखबारों की सुर्खियों में रहा।

उसे समय का सर्वाधिक प्रसारित बीबीसी लंदन न्यूज़ ब्रॉडकास्ट ने भी यमुना प्रसाद शास्त्री के जीत की खबर को प्रमुखता से प्रसारित करते हुए रीवा की जनता के लिए यह कमेंट किया था कि यहां की जनता ने नेत्रहीन नेता को सांसद के तौर पर लोकसभा भेजा है। दूसरी ओर यह भी खबरें प्रकाशित हुई थी कि अब राजशाही के प्रति लोगों की आस्था घट चुकी है। इस चुनाव के हार के बाद महाराजा मार्तंड सिंह ने जनता से मिलने जुलने का कम बढ़ा दिया था और किले में रोजाना दरबार लगाने लगे थे। कार्यक्रमों में भी आना-जाना शुरू कर दिए और उसका परिणाम यह हुआ कि वर्ष 1980 के चुनाव में कांग्रेस समर्थित और निर्दलीय उम्मीदवार महाराजा मार्तंड सिंह को वम्फर वोट मिले, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। महाराजा मार्तंड सिंह को 294234 मत मिले थे जबकि जनता पार्टी से लड़े जमुना प्रसाद शास्त्री को केवल 55883 मतों से संतोष करना पड़ा । एक झटके में ही जमुना प्रसाद शास्त्री की लोकप्रियता तेजी से घट गई थी और लोगों ने फिर से अपने राजा को पर्याप्त सम्मान दिया। 1984 अक्तूबर में स्वर्गीय इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी और उसके बाद 1985 में लोकसभा के चुनाव हुए थे, तब राजीव गांधी और माधवराव और सिंधिया के आग्रह पर कांग्रेस के पंजे निशान पर चुनाव लड़ना मार्तंड सिंह ने स्वीकार किया था और जीत भी हासिल की थी। इस दौरान विपक्षी नेताओं ने लगातार इस बात का हल्ला उड़ाया कि रीवा की आवाज संसद तक पहुंचती ही नहीं और मार्तंड सिंह को मूक नेता के रूप में प्रचारित किया गया। इस समय आरक्षण आंदोलन ने जोर पकड़ा और बीपी सिंह के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा कांग्रेस के सामने आया, इस दौरान जमुना प्रसाद शास्त्री के प्रखर बयान और उत्तेजक भाषणों ने जनता को फिर उनके करीब ला दिया। लेकिन मार्तंड सिंह ने इस बार चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और कांग्रेस ने इस बार महारानी प्रवीण कुमारी को मैदान में उतारा। उसे समय कांग्रेस का मानना यह था कि रीवा जिले में राज परिवार का वजूद जबरदस्त है जिसे कोई हिला नहीं सकता है। लेकिन महारानी प्रवीण कुमारी को जमुना प्रसाद शास्त्री ने 74 756 मतों से पटकनी दे डाली। यमुना प्रसाद शास्त्री एक बार फिर चर्चाओं में रहे। लेकिन संयोग यह है कि उसके बाद के चुनाव में लोगों ने उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया। एक वक्त ऐसा भी आया जब यमुना प्रसाद शास्त्री को लोकसभा चुनाव में केवल 10000 मतों से ही संतोष करना पड़ा था।


वर्ष 1991 के चुनाव में राज परिवार सामने नहीं आया। इस चुनाव में कांग्रेस से श्रीनिवास तिवारी भाजपा से कौशल प्रसाद मिश्रा और बसपा से मास्टर भीम सिंह पटेल मैदान में थे। श्रीनिवास तिवारी उन दिनों विधानसभा के उपाध्यक्ष भी हुआ करते थे। एक साथ दो ब्राह्मणों के मैदान में उतरने का फायदा भीम सिंह पटेल को मिला और श्रीनिवास तिवारी को 14316 मतों से हराते हुए लोकसभा की इकलौते बसपा सांसद बने थे। तब भी रीवा लोकसभा चर्चाओं में आ गई थी कि रीवा की जनता अजीब है। यहां के फैसले लोग अजीब तरीके से लेते हैं और भीम सिंह भी शान के साथ अकेले ही हाथी का झंडा लहराते रहते थे। वर्ष 1996 में भी जब पूरे देश से बसपा के आठ सांसद हुए तो रीवा से बुद्धसेन पटेल का नाम था। वर्ष 1998 का चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए काफी सुखद अहसास करने वाला रहा। पहली बार भारतीय जनता पार्टी से यहां चंद्रमणि त्रिपाठी ने जीत हासिल की थी। उसके बाद वर्ष 1999 के चुनाव में जब श्रीनिवास तिवारी विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे तब सुंदरलाल तिवारी को टिकट मिला और वह बीएसपी को हराते हुए संसद में पहुंचे थे। लेकिन वर्ष 2004 मैं स्थितियां फिर बदली और चंद्रमणि त्रिपाठी दोबारा सांसद चुने गए थे।


इन सब घटनाक्रमों की बीच वर्ष 2009 का चुनाव एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा के लिए बड़ा ही बुरा साबित हुआ जब भाजपा से चंद्रमणि त्रिपाठी भी हार गए और कांग्रेस से सुंदरलाल तिवारी को भी हार का सामना करना पड़ा, दो ब्राह्मणों की लड़ाई में बसपा ने एक बार फिर जीत हासिल की और देवराज सिंह पटेल सांसद बन गए। इस बार देवराज पटेल ने सुंदरलाल तिवारी को 4031 मतों से हराया था। इस चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि अपने समर्थकों और जनता के बीच अपनी पकड़ का दावा करने वाले महाराज पुष्पराज सिंह भी समाजवादी पार्टी से मैदान में उतर गए थे। इन्हें केवल 105000 वोट मिले थे। चौथे नंबर पर रहे और राज परिवार की शान पर एक दाग सा लग गया जब लोकसभा चुनाव के इतिहास के पन्नों में यह दर्ज हो गया कि राजा रानी के साथ युवराज भी हार गए और जनता अब चुनाव में राज परिवार को ज्यादा महत्व नहीं दे रही है। इसके बाद तो यह मोदी लहर आ गई और वर्ष 2014 और 2019 में लगातार जनार्दन मिश्रा ही जीते।

दशहरे की शोभा यात्रा में अभी भी राज परिवार का सम्मान, लेकिन

हर साल आने वाले दशहरा पर्व के दौरान रीवा की एक परंपरा रही है कि जब यहां पर दुर्गा प्रतिमाओं की श्रृंखला वाली झांकियां निकलते हैं तब रीवा राजाधिराज की गद्दी भी निकलती है। शुरुआत से इस गद्दी के पीछे चलने का प्रचलन महाराज वेंकट रमन सिंह जू देव के जमाने से चला आ रहा है, यह कम अभी भी चलता है। महाराजा मार्तंड सिंह का दर्शन करने दशहरा के दिन सुबह से लेकर शाम तक भीड़ रहा करती थी, लोगों की यह मान्यता थी कि दशहरा के दिन राजा का दर्शन करने से उनके आगामी दिन सुख समृद्धि वाले रहेंगे। यह दौर अभी भी जारी है। हालांकि अब वह मानसिकता नहीं रह गई है, लेकिन राज परिवार को बीच में यह लगा था कि इतने लोग दर्शन देने आते हैं लिहाजा उनकी भावना राज परिवार से जुड़ी हुई है, इसलिए वोट लेने में भी समस्या नहीं आएगी। लेकिन अब इसका लगातार उल्टा देखने को मिल रहा है। परियों भी अब तवज्जो उस तरीके से नहीं देती है, जैसा पहले सम्मान देती थी। इस बार भी महाराज पुष्पराज सिंह को आशा थी कि भाजपा उन्हें तरजीह देगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वही जनता भी अब यह कमेंट्स करते पाई जाती है कि हमारे महाराज तो अब व्यवसाई हो चुके हैं, जनता से भी कोई ज्यादा सरोकार रहता नहीं, इसलिए अब सब कुछ जय श्री राम है।

क्या बनेगा इस बार माहौल


अब एक बार फिर लोकसभा चुनाव 2024 की चर्चाएं लोगों की जुबान पर आ चुकी हैं। भारतीय जनता पार्टी ने तीसरी बार जनार्दन मिश्रा को अपना उम्मीदवार बना दिया है, अब इन परिस्थितियों में कांग्रेस अपना उम्मीदवार ढूंढ रही है। फिलहाल नाम महापौर अजय मिश्रा बाबा का चल रहा है, लेकिन यह भी चर्चाएं होने लगी है कि इस बार यहां से कांग्रेस पिछड़े वर्ग को महत्व दे सकती है। उधर बी एसपी इंतजार कर रही है कांग्रेस के कैंडिडेट का। इंडिया ग्रुप में बीएसपी शामिल नहीं है इसलिए यह माना जा रहा है कि वह भाजपा के लिए बी टीम साबित होगी और कांग्रेस के लिए ही मुसीबत खड़ी करेगी। उधर मोदी लहर और श्री राम लहर का असर रीवा में बरकरार है। उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल के नेतृत्व में भाजपा का प्रचार प्रसार अभियान भी अघोषित तौर से शुरू हो चुका है, ऐसे में भाजपा उत्साहित है वहीं अन्य दल रणनीति बनाने में उलझे से हुए हैं।


रीवा से अनिल त्रिपाठी

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